मिट्टी के तावे से लेकर फ्रिज बनाने के उपकरण देने का था प्रावधान, लेकिन बोर्ड निष्क्रिय होने से नहीं मिला लाभ
Highlights:
- झारखंड माटी कला बोर्ड छह साल से भंग, कुम्हारों को नहीं मिल रहा सरकारी लाभ
- 2016 में बना था बोर्ड, लेकिन पहले कार्यकाल के बाद पुनर्गठन नहीं हुआ
- बोर्ड से इलेक्ट्रॉनिक चाक, डिज़ाइनर सांचे और मिट्टी फ्रिज मशीन देने का था प्रावधान
- जिले में करीब 500 प्रजापति परिवार मिट्टी के बर्तन व्यवसाय पर निर्भर
- इलेक्ट्रॉनिक लाइटों ने घटाई दीए की मांग, दीपावली में भी नहीं बढ़ रही बिक्री
- लागत दोगुनी, लेकिन दीए और बर्तनों के दाम जस के तस
- मिट्टी के दीए अब 1 से 1.5 रुपए, जबकि मिट्टी की कीमत 2000 रुपए प्रति ट्रैक्टर पहुंची
विस्तार:
चतरा: दीपावली आने वाली है, और त्योहार में सबसे ज़रूरी होता है मिट्टी का दीया। लेकिन इन दीयों को बनाने वाले कुम्हार इस बार परेशान हैं। चतरा इलाके के कुम्हारों का कहना है कि बाजार में चाइनीज़ लाइट और प्लास्टिक सजावट की बाढ़ ने मिट्टी के दीयों की मांग को बहुत कम कर दिया है। महंगाई बढ़ गई है, लेकिन दीयों के दाम अब भी पुराने हैं। नतीजा यह है कि कुम्हार परिवारों को मेहनत के बावजूद मुनाफा नहीं मिल पा रहा।
ज्ञात हो कि वर्ष 2016 में झारखंड माटी कला बोर्ड का गठन हुआ था, जिससे मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार समाज के लोगों में आय वृद्धि की उम्मीद जगी थी। लेकिन बोर्ड का पहला तीन वर्ष का कार्यकाल समाप्त होने के बाद पुनर्गठन नहीं हो पाया, जिसके कारण कुम्हार समुदाय को कोई लाभ नहीं मिल सका। जिले में लगभग 500 प्रजापति परिवार पूरी तरह मिट्टी के बर्तनों के कारोबार पर निर्भर हैं। दीपावली के समय मिट्टी के दीयों की मांग बढ़ने पर थोड़ी आमदनी होती है, लेकिन बाकी साल आर्थिक संकट बना रहता है।
मिट्टी के तावे से लेकर फ्रिज बनाने की मशीन तक का था प्रावधान
माटी कला बोर्ड में कुम्हारों के लिए इलेक्ट्रॉनिक चाक, मिट्टी सौंदने की मशीन, डिज़ाइनर सांचे, और मिट्टी से फ्रिज बनाने की मशीन अनुदान पर देने का प्रावधान किया गया था। पहले चरण में जिले के 136 कुम्हारों को इलेक्ट्रॉनिक चाक मिला, लेकिन उसके बाद कोई सहायता नहीं मिली।
चतरा जिला प्रजापति समाज के अध्यक्ष पंकज प्रजापति ने कहा,
“अगर माटी कला बोर्ड सक्रिय होता, तो मिट्टी के बर्तन बनाने वाले परिवारों की आर्थिक स्थिति काफी मजबूत होती। हमने मुख्यमंत्री से मिलकर बोर्ड के पुनर्गठन की मांग की है।”
इलेक्ट्रॉनिक लाइटों ने चाक की रफ्तार की धीमी
समय के साथ दीपावली जैसे त्योहारों के स्वरूप में बड़ा बदलाव आया है। पहले जहां घरों को मिट्टी के दीयों से सजाया जाता था, वहीं अब इलेक्ट्रॉनिक लाइटें, झालर और ट्यूबलाइट ने उनकी जगह ले ली है।
कुम्हार टोली निवासी बुजुर्ग चंद्रदेव प्रजापति, जो पिछले 40 सालों से मिट्टी के बर्तन बना रहे हैं, कहते हैं:
“पहले 600-700 रुपए में एक ट्रैक्टर मिट्टी मिल जाती थी, अब वही मिट्टी 2000 रुपए की हो गई है। दीए का भाव अब भी 1 से 1.5 रुपए ही है। नए पीढ़ी के युवा इस काम से दूरी बना रहे हैं।”
दीए की कीमत नहीं बढ़ी, बिक्री भी घटी
बाजार में अन्य वस्तुओं की कीमत बढ़ने के बावजूद मिट्टी के दीए और बर्तनों के दाम जस के तस हैं।
आज भी 100 से 150 रुपए सैकड़ा दीए आसानी से मिल जाते हैं, जबकि ग्रामीण इलाकों में यह कीमत और भी कम है।
चंद्रदेव प्रजापति बताते हैं —
“पहले दीपावली पर लोग पूरे घर को दीयों से सजाते थे, अब सिर्फ 5–10 दीए खरीदते हैं। मिट्टी का बर्तन बनाना अब मुनाफे का सौदा नहीं रहा।”